4 August 2025

भारतीय हथकरघा के लिए नवाचार और स्थायित्व के साथ भविष्य बुनना

नई दिल्ली : हथकरघा क्षेत्र भारत में सबसे बड़ा कुटीर उद्योग है, जो देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और 3.5 मिलियन से अधिक लोगों को आजीविका प्रदान करता है। स्थानीय बुनकरों द्वारा नैतिक रूप से निर्मित हथकरघा और दस्तकारी वस्त्र, बड़े पैमाने पर उत्पादित फास्ट फैशन का एक सार्थक विकल्प प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करके, वे भारत की समृद्ध विरासत को आधुनिक विश्व के लिए एक व्यापक स्थिरता की कहानी में शामिल करते हैं।

टिकाऊ वस्त्र इको-सिस्टम के निर्माण के लिए ग्रामीण हथकरघा और हस्तशिल्प क्लस्टरों को सहायता देना महत्वपूर्ण है। ये क्लस्टर भारतीय शिल्पकला की उन जीवंत परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्हें परिवारों और समुदायों द्वारा पीढ़ियों से कायम रखा गया है। निजी क्षेत्र और सामाजिक उद्यमों ने इस क्षेत्र को पुनर्जीवित करने में सराहनीय भूमिका निभाई है। उनका कार्य पर्यावरण अनुकूल सामग्रियों के साथ नवाचार, स्थानीय स्रोत, रि-साईकिलिंग और अप-साईकिलिंग, तथा पारंपरिक प्रथाओं के साथ प्रौद्योगिकी को एकीकृत करने तक फैला हुआ है। ये प्रयास सहयोग के माध्यम से कारीगर समुदायों को सशक्त बनाने, शिल्पकारों और डिजाइनरों के बीच साझेदारी बनाने, उपभोक्ता जागरूकता बढ़ाने और कारीगरों को वैश्विक बाजारों से जोड़ने पर भी ध्यान केंद्रित करते हैं। जापान के ओसाका में आयोजित विश्व एक्सपो 2025 और अमेरिका के सांता फे में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय लोक कला बाजार जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर भारतीय शिल्पकारों की हालिया भागीदारी उनकी अनुकूलनशीलता और वैश्विक अपील को दर्शाती है।

भारत सरकार अनेक योजनाओं और पहलों के माध्यम से वस्त्र पारिस्थितिकी तंत्र (टेक्सटाइल इको-सिस्टम) का समर्थन करती है। इनमें कच्चे माल की खरीद, करघों और सहायक उपकरणों आदि की खरीद के लिए वित्तीय सहायता, महिला सशक्तिकरण के लिए प्रोत्साहन, कौशल विकास कार्यक्रम तथा पारंपरिक हथकरघों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु मार्केटिंग प्रयास शामिल हैं। पर्यावरण-अनुकूल और सर्कुलर प्रोडक्ट्स को बढ़ावा देने, जैविक कच्चे माल तक पहुँच में सुधार लाने और नैतिक प्रथाओं के माध्यम से प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया गया है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी पहलों ने हथकरघा बुनकरों के लिए अवसरों का काफी विस्तार किया है। ‘कौशल भारत’ और ‘डिजिटल भारत’ जैसे अन्य कार्यक्रम कारीगरों को अपने कौशल को अपग्रेड करने और अपने कार्यस्थलों से सीधे बड़े बाजारों तक पहुंचने में सक्षम बना रहे हैं।

इस क्षेत्र के विकास को बनाए रखने के लिए हथकरघा परंपराओं का दस्तावेजीकरण और संरक्षण भी समान रूप से आवश्यक है। वस्त्र मंत्रालय के नेतृत्व में डिजिटल संग्रह, भारतीय वस्त्र एवं शिल्प कोष, पारंपरिक और समकालीन ज्ञान दोनों को संग्रहित करके इस उद्देश्य की पूर्ति करता है। यह मंच अनुसंधान डेटा, डिजाइनर और कारीगर प्रोफाइल, एक वर्चुअल संग्रहालय और डिजिटल प्रदर्शनियां उपलब्ध कराता है, जिससे यह विद्वानों, शिक्षार्थियों और शिल्प उत्साही लोगों के लिए एक मूल्यवान संसाधन बन जाता है।

हथकरघा क्षेत्र को अधिक लक्ष्य-उन्मुख और लाभदायक बनाने के लिए व्यवसाय-केंद्रित रणनीति आवश्यक है। को-ऑप्टेक्स, बोयानिका अथवा टाटा ट्रस्ट द्वारा अन्तरान जैसे हथकरघा मार्केटिंग संगठनों की केस स्टडी से पता चलता है कि व्यवस्थित योजना, चाहे वह समितियों, सहकारी समितियों के प्रोत्साहन के माध्यम से हो अथवा गैर-लाभकारी संस्थाओं के साथ सहयोग के माध्यम से हो, हथकरघा बुनकरों की आय और आजीविका में महत्वपूर्ण सुधार ला सकती है।

इसे हासिल करने के कई तरीके हैं। पारंपरिक और आधुनिक, दोनों बाज़ारों के लिए नए डिज़ाइन विकसित करने के साथ-साथ पारंपरिक डिज़ाइनों को पुनर्जीवित करना, खासकर थीम-आधारित प्रदर्शनियों के ज़रिए, ग्राहकों को शिक्षित करने और माँग बढ़ाने में मदद कर सकता है। अंगवस्त्रम, वेष्टी और मुंडू जैसे उत्पादों को भी प्रासंगिक बने रहने के लिए विचारशील डिजाइन नवाचार की आवश्यकता होती है। वर्तमान आंकड़ों से पता चलता है कि केवल 22% हथकरघा बुनकर साड़ियां बनाते हैं और 19% अंगवस्त्रम और इसी तरह के उत्पादों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे 59% ऐसे बुनकर बचते हैं जिन्हें घरेलू साज-सज्जा और वस्त्र सामग्री की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए प्रशिक्षित और सक्रिय किया जा सकता है। आधुनिक रुचियों के अनुरूप ढलते हुए, भारतीय हथकरघा को परिभाषित करने वाले अद्वितीय क्षेत्रीय कौशल और तकनीकों को संरक्षित करना महत्वपूर्ण है। जैविक फाइबर, प्राकृतिक रंगों और टिकाऊ सामग्रियों के उपयोग से हथकरघा उत्पादों का मूल्य और आकर्षण और अधिक बढ़ सकता है।

वस्त्र मंत्रालय संत कबीर और राष्ट्रीय हथकरघा पुरस्कार जैसे पुरस्कारों के माध्यम से बुनकरों के योगदान को सक्रिय रूप से मान्यता प्रदान कर रहा है और उन्हें पुरस्कृत कर रहा है। हाल के वर्षों में, नई श्रेणियां शुरू की गई हैं, जैसे कि महिला बुनकरों, जनजातीय कारीगरों, दिव्यांग बुनकरों, नवोन्मेषी उत्पादक समूहों और हथकरघा के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ने वाले डिजाइनरों के लिए पुरस्कार। इसमें एक उल्लेखनीय बात यह है कि युवाओं को युवा बुनकर पुरस्कार भी दिया जाता है, जोकि 30 वर्ष से कम आयु के ऐसे कारीगरों को दिया जाता है, जिन्होंने पारंपरिक तकनीकों में निपुणता प्राप्त कर ली है तथा नवाचार अथवा उद्यमिता के प्रति प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करते हैं। ये पुरस्कार न केवल प्रतिष्ठित हैं बल्कि पारदर्शी और लोकतांत्रिक भी हैं, तथा इनके साथ नकद पुरस्कार और प्रशस्ति पत्र भी दिए जाते हैं। संत कबीर, राष्ट्रीय एवं राज्य पुरस्कार विजेताओं को आजीवन 8,000 रुपये मासिक पेंशन दी जाती है। इसका उद्देश्य हथकरघा के क्षेत्र में नवाचार, विशेष रूप से ऐसी तकनीकों और सौंदर्यबोध को बढ़ावा देना है, जिनकी मशीनों अथवा पावरलूमों द्वारा नकल नहीं की जा सकती है।

भारतीय हथकरघा उद्योग का स्थायित्व बनाए रखने के लिए परंपरा और नवाचार दोनों को अपनाने की आवश्यकता है। भारत कपास, रेशम, ऊन, जूट और नारियल के रेशों जैसे प्राकृतिक फाइबर से समृद्ध है, और यहाँ बाँस, केले के फाइबर, हेम्प और मिल्कवीड जैसी नई सामग्रियों की खोज तेज़ी से हो रही है। कृषि अपशिष्ट की एक बड़ी मात्रा भी अभी तक पूरी तरह से उपयोग में नहीं आ पाई है। इस प्रचुरता के बावजूद, वास्तव में टिकाऊ उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर यार्न और वस्त्र प्रसंस्करण को मजबूत करने की अभी भी आवश्यकता है।

वस्त्र क्षेत्र में उद्यमों के सर्कुलर उत्पादन में तेजी आ रही है। वर्तमान समय में भारत की गहन भौतिक संस्कृति के बारे में जागरूकता बढ़ रही है, यह केवल यार्न और फैब्रिक में ही नहीं, बल्कि परिधानों के सहायक उपकरणों में भी बढ रही है, जिनका पर्यावरणीय प्रभाव के लिए मूल्यांकन किया जा रहा है। बचे हुए कपड़ों और धागों का उपयोग करके बनाए गए पुनर्चक्रित संग्रह लोकप्रिय हो रहे हैं, जो पारंपरिक, टिकाऊ प्रथाओं के पुनरुद्धार में योगदान दे रहे हैं। यह आंदोलन पर्यावरण के प्रति जागरूक फैशन की ओर एक व्यापक वैश्विक बदलाव को दर्शाता है।

आज, तेज़ी से बढ़ते शहरी प्रवास और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे के साथ, पारंपरिक बुनकर की अपने करघे पर भूमिका प्रतीकात्मक से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है, अब यह हरित तकनीक और सांस्कृतिक संरक्षण का एक सशक्त उदाहरण बन गई है। भारत की हथकरघा विरासत एक ऐसा मार्ग प्रशस्त करती है जो पर्यावरण और शिल्प से जुड़े लोगों का सम्मान करती है और देश को ज़िम्मेदार एवं नैतिक फ़ैशन के क्षेत्र में अग्रणी बनाती है।

  • लेखक : गिरिराज सिंह वस्त्र मंत्री, भारत सरकार